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जंगल के दावेदार

महाश्वेता देवी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3022
आईएसबीएन :9788183611510

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बिहार जिले के घने जंगलों में रहनेवाली आदिम जातियों की अनुभूतियों, पुरा-कथाओं और सनातन विश्वासों में सिझी सजीव सचेत आस्था का चित्रण...

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बिहार के अनेक जिलों के घने जंगलों में रहनेवाली आदिम जातियों की अनुभूतियों पुरा-कथाओं और सनातन विश्वासों में सिझी सजीव, सचेत आस्था का चित्रण !

जंगलों की माँ की तरह पूजा करनेवाले,अमावस की रात के अँधेरे से भी काले-और प्रकृति जैसे निष्पाप-मुंडा हो हूल,संथाल कोल और अन्य बर्बर असभ्य जातियों द्वारा शोषण के विरुद्ध और जंगल की मिल्कियत के छीन लिए गए अधिकारों को वापस लेने के उद्देश्य से की गई सशस्त्र क्रान्ति की महागाथा !

25 वर्ष का अनपढ़ बीरसा उन्नीसवीं शती के अन्त में हुए इस विद्रोह में संघर्षरत लोगों के लिए भगवान बन गया था-लेकिन भगवान का यह सम्बोधन उसने स्वीकार किया था उनके जीवन में,व्यवहार में,चिन्तन में और आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों में आमूल क्रान्ति लाने के लिए।

कोड़ों की मार से उधड़े काले जिस्म पर लाल लहू ज्यादा लाल,ज्यादा गाढ़ा दिखता है न ! इस विद्रोह की रोमांचकारी,मार्मिक,प्रेरक,सत्यकथा पढ़िए-जंगल के दावेदार में। हँसते-नाचते गाते, परम सहज आस्था और विश्वास से दी हुई प्राणों की आहुतियों की महागाथा-जंगल के दावेदार। भूमिका भारतवर्ष के स्वाधीनता-संग्राम के इतिहास में बीरसा मुंडा का नाम और विद्रोह अनेक दृष्टियों से स्मरणीय और सार्थक है। इस देश की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि में उनका जन्म और अभ्युत्थान केवल एक विदेशी सरकार और उसके शोषण के विरूद्ध नहीं था। यह विद्रोह साथ ही साथ समकालीन सामन्ती व्यवस्था के विरूद्ध भी था। इतिहास की इन सब विवेचनाओं से काटकर बीरसा मुंडा और उसके अभ्युत्थान की सही-सही विवेचना असंभव है।

लेखक के रूप में, समकालीन मनुष्य के रूप में एक वस्तुवादी ऐतिहासिक का समस्त दायित्व वहन करने में हम सदा ही प्रतिश्रुत हैं। दायित्व स्वीकार करने का अपराध समाज कभी क्षमा नहीं करेगा ! मेरा बीरसा-केन्द्रित उपन्यास उसी प्रतिश्रुति का ही परिणाम है।

फिर भी उपन्यास की विधा सदा ही अपनी आंगिक रीति मानकर चलती है। इस उपन्यास का भी इसीलिए बीरसा की मृत्यु से अन्त होता है। किन्तु जीवन-विद्रोह-जो भी प्रचलित और प्रवाहित है-उसकी सच्चाई किसी भी काल में किसी भी देश में नेता की मृत्यु से समाप्त नहीं हो जाती। कालान्तर में उत्तराधिकार के पथ पर वह बढ़ता रहता है। विद्रोह से जन्म लेती है क्रान्ति। इस उपन्यास के अंत के बाद भी उपसंहार के संयोजन से यही अभीष्ट है।

इस उपन्यास को लिखने में सुरेशसिंह रचित Dust Storm and Hanging पुस्तक के प्रति मैं विशेष रूप से ऋणी हूँ। इस सुलिखित तथ्य-पूर्ण ग्रंथ के बिना ‘जंगल के दावेदार’ का लेखन संभव न होता।

‘अरण्येर अधिकार’ (मूल उपन्यास का बंगला नाम) वर्ष 1975 के बेतार जगत् पत्रिका’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत पुस्तक उपन्यास का परिवर्धित, परिमार्जित और हिन्दी रूप है। पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए प्रकाशक मेरे धन्यवाद के पात्र हैं।

9 जून, साल 1900 । राँची की जेल।

सवेरे आठ बजे बीरसा खून की उलटी कर, अचेत हो गया। बीरसा मुंडा-सुगाना मुंडा का बेटा; उम्र पच्चीस वर्ष-विचाराधीन बन्दी। तीसरी फ़रवरी को बीरसा पकड़ा गया था, किंतु उस मास के अन्तिम सप्ताह तक बीरसा और अन्य मुंडाओं के विरूद्ध केस तैयार नहीं हुआ था। उस समय मुंडा लोगों की ओर से बैरिस्टर जेकब लड़ रहे थे। वह अब भी लड़ रहे हैं। बीरसा को पता था कि जेकब उनकी ओर से लड़ेंगे। बीरसा को पता था कि जेकब को उसके लिए लड़ना न पड़ेगा। क्रिमिनल प्रॉसीजॅर कोड की बहुत-सी धाराओं में बीरसा को पकड़ा गया था, लेकिन बीरसा जानता था कि उसे सजा नहीं होगी।

भोला बीरसा अनजान है, लेकिन वह एक तसवीर के बाद दूसरी तसवीर-इसे पहचान सकता है-सब देख सकता है। भात मुंडा लोगों के जीवन में स्वप्न ही बना रहता है। घाटो1 एक मात्र खाद्य है जो मुंडा लोगों को खाने को मिलता है। इसी से भात का मिलना एक सपना बना रहता है। किसी-न-किसी तरह भात के सपने ने ही बीरसा के जीवन को नियंत्रित कर रखा था। अधिकतर समय बीरसा की ज़ोरों की शिकायत रहती है ‘मुंडा केवल घाटो ही क्यों खायें ? दिकू2 लोगों की तरह वे भात क्यों न खायें ?’ और भात राँधा था, इसलिए तीसरी फ़रवरी को बीरसा पकड़ा गया बीरसा सो रहा था। औरत भात पका रही थी। नीले आकाश में धुआँ उठ रह था, बीरसा नींद की गोद में था; तभी लोगों ने उठता हुआ धुआँ देख लिया। उसके बाद बनगाँव-उसके बाद खूँटी-उसके बाद राँची। बीरसा के

1. मिला-जुला मोटा अनाज।
2. गैर-आदिवासी; आदिवासियों का शोषण करने वाले।

हाथों में हथकड़ियाँ थीं; दोनों ओर दो सिपाही थे। बीरसा के सिर पर पगड़ी थी; धोती पहने था। बदन पर और कुछ नहीं था—इसी से हवा और धूप एक साथ चमड़ी को छेद कर रहे थे। राह के दोनों ओर लोग खड़े थे। सभी मुंडा थे। औरतें छाती पीट रही थीं; आकाश की ओर हाथ उड़ा रही थीं। आदमी कह रहे थे : जिन्होनें तुम्हें पकड़वाया है वे माघ महीना भी पूरा होते न देख पायेंगे। वे अगर जाल फैलाये रहते हैं तो उस जाल में पकड़े शिकार को उन्हें घर नहीं ले जाने दिया जायेगा।’

किंतु बीरसा उन पर खफ़ा नहीं होगा। पकड़वा दिया; क्यों न पकड़वा देते ? डिप्टी –कमिश्नर ने उन्हें गिनकर पाँच सौ रुपये नहीं दिये क्या ! पाँच सौ रुपये बहुत होते हैं ! किसी भी मुंडा के पास तो पाँच सौ रुपये कभी नहीं हुए; नहीं होते। मुंडा अगर रात में सोते-सोते सपना भी देखता है तो सपने में बहुत होता है तो वह महारानी1 मार्का दस रुपये देख पाता है। उन्हें पाँच सौ रुपये मिले हैं- क्यों न बीरसा को पकड़वा देते ?

असल में बीरसा को अपने ऊपर गुस्सा आ रहा था। नींद क्यों आ गयी ? नींद न आ जाती तो वह जागता रहता। आग जलाकर भात न राँधने देता। जब आग न सुलगती, आसमान में धुआँ न उठता, कोई भी देख या जान न पाता ! राह चलते-चलते बीरसा के मन में हो रहा था- इस समय भी अचेत बीरसा के मन में आया- वह आग उन्होंने बुझा तो दी थी न ? मुंडा लोगों को कम ही ध्यान रहता है। धक-धक जलती आग से जंगल जल जाता है, दावानल लपलपाकर फैल जाती है, और बरसों के लिए जंगल सूखा, और बड़ा गरम हो जाता है। इसी से तो बीरसा ने ‘उल-गुलान’2 में सब-कुछ अच्छी तरह जला डालना चाहा था। उलगुलान की आग में जंगल नहीं जलता; आदमी का रक्त और हृदय जलता है ! उस आग में जंगल नहीं जलता ! मुंडा लोगों के लिए जंगल नये सिरे से माँ की तरह बन जाता है-बीरसा की माँ की तरह; जंगल की संतानों को गोदी में लेकर बैठता है।

इसीलिए तो बीरसा ने जंगल का अधिकार चाहा था ! वह जंगलों को दिकू लोगों के अधिकार से छीन लेगा। जंगल मुंडा लोगों की माँ है और दिकू लोगों ने मुंडा लोगों की जननी को अपवित्र कर रखा है। बीरसा ने उलगुलान की आग जलाकर माँ-जंगल को शुद्ध करना

1. महारानी विक्टोरिया।
2. बीरसा मुंडा द्वारा संचालित आंदोलन।

चाहा था । उसके बाद मुंडा और हो, कोल और संथाल उराँव लोगों ने जंगल के स्वामित्व का दावा, छोटा नागपुर के अरण्य का अधिकार, पालूम, सिंहभूम, चक्रधरपुर—सारे जंगलों का अधिकार चाहा था जिससे वे माँ की गोद में फिर से पसर सकें।

बीरसा समझ गया कि अब वह चला जाएगा, क्योंकि आज ही सवेरे उसने खून की बड़ी भयानक क़ै की थी। अचेत होते-होते भी अपने खून का रंग देखकर बीरसा मुग्ध हो गया था। ख़ून का रंग इतना लाल होता है ! सबके ही ख़ून का रंग लाल होता है; बात उसे बहुत महत्त्व की ज़रूरी लगी। मानो यह बात किसी को बताने की ज़रूरत थी ! किसे बताने की ज़रूरत थी ? किसे पता नहीं है ? अमूल्य को पता है, बीरसा को मालूम है, मुंडा लोग जानते हैं। साहब1 लोग नहीं जानते। जेकव जानता है। लेकिन जेल का सुपरिंटेंडेंट, डिप्टी-कमिश्नर-ये लोग नहीं जानते। नहीं जानते–इसलिए न वे लोग फ़ौज की टुकड़ी, और बन्दूक, और तोप लेकर लँगोटी लगाए तीर-बरछा-बलोया2 और पत्थर का सहारा लेने वाले मुंडा लोगों को मारने आये थे। बीरसा अगर बोल सकता तो कह जाता : साहब लोगों ! खून के रंग में कोई अंतर नहीं होता। मारने पर जितनी तुमको चोट लगती है, मुंडा लोगों को भी उतनी ही लगती है। मुंडा लोगों के जीवन पर तुम लोगों ने जबरदस्ती अधिकार जमा लिया है। उस अधिकार को छोड़ने में तुमको जैसा लगता है, जंगल की आबाद जमीन को दीकू लोगों के हाथों में देते मुंडा लोगों को भी वैसा ही लगता है।

किन्तु बीरसा कुछ कह न पाया। वह आँखें नहीं खोल पाता है-किसी ने अंदर जैसे महुआ के तेल की मशाल और ढिबरी बुझा दी हो। जैसे कोई बीरसा को हिला रहा है। कह रहा है : सो जाओ, सो जाओ, सो रे। सवेरे आठ बजे बीरसा ख़ून की क़ै करके अचेत हो गया। उस समय राँची जेल की हर कोठरी में रोना सुनाई पड़ा था, लेकिन राँची जेल के सुपरिंटेंडेंट साहब ने उस पर ध्यान नहीं दिया। सब समझ रहे हैं कि

1. अंगरेज़।
2. एक ख़ास आकार का फरसा।

बीरसा मर जाएगा। लेफ़्टिनेंट-गवर्नर को क्या खबर देंगे, वह इस बात की सोच में है। जल्दी-जल्दी घड़ी देख रहे थे। इस आदमी का शरीर आश्चर्य–जनक रूप से शक्तिशाली था। मई महीने की तीस तारीख से भोग रहा है, तो भोगता ही जा रहा है। फ़रवरी से अकेला एक कोठरी में बंद है। फ़रवरी के पहले बहुत दिन तक पहाड़ों जंगलों में भागा-भागा फिरता था। खाने-पीने को कभी क्या मिला-यह वही जाने ! शरीर टूटता नहीं, मरता नहीं। अब उसे मर जाना चाहिए। नहीं तो प्रमाणित हो जाएगा कि बीरसा सचमुच भगवान है। भगवान न होता तो इतने दिनों में वह मर ही जाता ! सवेरे नौ बजे बीरसा मर गया। जेल के सुपरिंटेंडेंट हाथ में घड़ी लिए खड़े थे। बीच-बीच में उसकी नब्ज देख रहे थे। वह क्षीण, बहुत क्षीण थी। बीरसा की आँखें बंद थीं- कपाल कुछ सिकुड़ा हुआ। ऐंडरसन कुतूहल-वश झुके।

अब झुका जा सकता है। जिन गोरे हाथों, गोरी चमड़ी से वह घृणा करता था, वही हाथ उसके चिपचिपाते कपाल, गाल को छूते हैं। उसका चेहरा छूकर ऐंडरसन को आश्चर्य की अनुभूति हुई। यही बीरसा है, जिसके लिए दो जिलों की पुलिस और सेना भाग-दौड़ कर रही थी। ? सुकुमार सुन्दर चेहरा ! कौन कहेगा मुंडा का लड़का है ? इस समय उसके मुँह पर मौत की छाया है। ऐंडरसन ने उसकी नाड़ी को टटोला। नौ बजे के लगभग नाड़ी क्षीण होते-होते रुक गयी। सहसा शरीर लु़ढ़क गया। कपाल की रेखाएँ मिट गयीं। मुख शांत और स्थिर हो गया। मृत्यु के सिवा और कोई भी शक्ति या घटना बीरसा मुंडा के शरीर में ऐसी अनन्य शांति नहीं ला सकती थी !

नौ बजे वह मर गया। उस समय उसके हाथ–पैर की ज़ंजीरें खोल दी गयीं। जीवित रहने पर इस साथी –रहित कोठरी में जब वह अनजान, बिना चिकित्सा के बीमारी भुगत रहा था, उस समय ज़ंजीरें खोलना संभव नहीं हुआ था। उस पर किसी को विश्वास ही नहीं होता था। संथालों का ‘हूल’1 नहीं, सरदारों की ‘मुल्की लड़ाई’ नहीं-बीरसा ने हाँक लगायी थी- उलगुलान की, एक बड़े भारी विद्रोह की।

मर गया बीरसा। उस समय उसके शरीर से ज़ंजीरें खोल दी गयीं। मुँह

1. संथालों द्वार चलाया गया 1855 का एक आंदोलन।

से खून पोंछ दिया गया। उसे बाहर ले आया गया। एक-एक कर उन सब लोगों को बाहर लाया गया –मुंडा क़ैदियों को। भरमी, गया, सुखराम डोन्का, रमई, गोपी-चार सौ साठ-सत्तर बन्दियों को बाहर आने में समय लगता है-कमर, हाथ पैरों की ज़ंजीरे साथ ही खींचकर लाने में समय लगता है। उसके सिवा आकाश तो अभी भी तप रहा है। जून महीने की भीषण गरमी में लोहे की बोझल ज़ंजीरों से झुके काले शरीरों की गति भी श्लथ हो जाती है।

इसीलिए उनके आने में समय लग गया- बीरसा के शरीर का एक चक्कर लगाकर वापस चले जाने में। ऐंडरसन का धीरज टूट रहा था। वहीं जेल के सुपरिंटेंडेंट और सरकारी डॉक्टर भी हैं। बीरसा का शरीर काटना-कूटना होगा ! उसके पहले ख़सख़स के पंखे वाले कमरे में बैठकर ठंडे होने की ज़रूरत है- ठंडी बीयर पीने की और भी ज़्यादा ज़रूरत है ! राँची ज़िले से दूर की जेल में उन्हें तकलीफ़ होती थी। लेकिन मुंडा लोग आसानी से दबाये नहीं जाते। किसी तरह आँखें भी नहीं उठाते। आँखें नीची किए वो लोग अपने भगवान को देखकर चलते जाते हैं ! मृत ईश्वर के शरीर को घेरकर ज़ंजीरों में बँधे काले, लँगोटी वाले कै़दी चल रहे है, परिक्रमा करके चले जाते हैं। सब चले गये; एक ने भी शनाख्त नहीं की। नहीं कहा : हाँ, यही हमारा बीरसा, भगवान है।

‘शनाख्त करो। शनाख्त करो ! ऐंडरसन ने चिल्लाकर कहा। हाँ, एक आदमी रूक गया। कपाल पर किरच से लगा घाव है–उसी से जाना, यह भरमी मुंडा है। नहीं तो इनमें हर एक का चेहरा, काले-काले मुँह, ऐंडरसन को एक-से लगते हैं। भरमी, खड़ा है देख रहा है।

‘कौन है ? किसे देख रहा है ?’
भरमी कुछ बोला नहीं, खड़े-खड़े थोड़ा झूलने लगा। उसके बाद, जैसे उसके अंदर से गाना फूट पड़ा हो। दुर्बोध, मुंडारी भाषा का गाना, रोने का-सा स्वर, मंत्रोच्चार-सा गंभीर स्वर ! भरमी बोला :
हे ओते दिसूम सिरजाओ
नि’ आलिया आनासि
आलम आनदूलिया।
आमा’ रेगे भरोसा
बिश्वास मेना।1

1. हे पृथ्वी के स्ष्टा, हमारी प्रार्थना व्यर्थ मत करो। तुम पर हमारा पूर्ण विश्वास है।

अर्थहीन आक्रोश से उबलकर ऐंडरसन बोला : ‘हटाओ, हटाओ।’ वार्डर ने भरमी को धक्का दिया। वे सब चले गये।

नौ जून को बीरसा सवेरे नौ बजे मर गया, लेकिन शाम को साढ़े-पाँच बजे के पहले सुपरिंटेंडेंट मुआयना न कर सके। मुआयना करके लिखा : ‘पाकस्थली जगह-जगह सिकुड़कर ऐंठ गयी है। क्षीण होते-होते छोटी आँते बहुत पतली पड़ गयी हैं। बहुत परीक्षा करने पर भी पाकस्थली में विष नहीं मिला।’ यहाँ तक की लिख कर उठे।—हाथों में ओ-डि-कलोन लगया। हाथ सूंघे। सुगंधित साबुन से नहाने के बाद भी शरीर में बीरसा की गंध नहीं जा रही थी। ताज्जुब है ! फ़ार्मलीन और स्पिरिट से पोछे हुए शरीर से भी सड़ाँध की हल्की सी बू निकल रही थी। शरीर का सड़ना बिलकुल शुरू होने के वक़्त इस तरह की गंध निकलती ही है !

सुपरिंटेंडेंट ने लिखा : ‘ख़ूनी पेचिश के बाद हैज़ा हो जाने में बड़ी आँत का ऊपरी हिस्सा सिकुड़कर जुड़ गया। परिणामस्वरूप हृत्पिंड की बायीं ओर खून बहा है और धीरे-धीरे निस्तेज होकर बीरसा मर गया।’ उसके बाद सोचकर देखा, बीरसा ने कभी जेल के बाहर एक बूँद पानी भी नहीं पिया। हैज़े की बात लिखी, इससे मन कचोटने लगा। अंत में लिखा : ‘क़ैदी को किस तरह हैज़ा हो गया, यह पता नहीं लगा।’ लिखते-लिखते सिर उठाया: ‘कौन ?’
‘मैं’। मुआयने के कमरे का डोम आ खड़ा हुआ।
‘बाबू कह रहे थे....।’
‘कौन बाबू ?’
‘डिप्टी बाबू ?’
‘क्या कहता था ?’
‘उसका क्या होगा ?’
‘किसका ?’
‘भगवान का ? वह क्या तुम्हारा भी भगवान है ? ‘तुम क्या मुंडा हो ?’
‘नहीं।’
‘नहीं तो भगवान मत कहो।’
‘ना हुजूर, नहीं कहूँगा।’
‘क्या कहता था ?’
‘भगवान का क्या होगा ?’
‘चुप रहो ! ’
‘हाँ, हुजूर’
‘ठीक से बताओ।’
‘भगवान के शरीर का क्या होगा ?’
ऐंडरसन का शरीर और मन जैसे पराजय की ग्लानि से अवसन्न हो गया। जो बंदूक लेकर बीरसा के साथ लड़े थे, उनकी लड़ाई ख़त्म हो गई। जो बीरसा को बांधकर ले आये थे, उनकी लड़ाई समाप्त हो गयी। उनके साथ बीरसा क्यों नहीं लडा़ई ख़त्म कर रहा है ? उन्होंने क्या किया है ? उसे सूनी कोठरी में रखा था ? उसके हाथ, पैर और कमर को ज़ंजीरें बाँध कर रखा था- और क्या किया था ? यह लड़ाई किसलिए है ? क्यों मुंडा लोगों ने बीरसा को बीरसा बताकर शनाख्त नहीं की ? क्यों उनकी नौकरी में लाश-घर का यह नगण्य डोम बीरसा को ‘भगवान कहे जा रहे है ?
‘जाओ, डिप्टी बाबू को भेज दो।’
‘बाबू आये हैं।’
‘अंदर आने को कहो।’
डिप्टी-सुपरिंटेंडेंट अमूल्य बाबू आये। उम्र कम थी। देखने में और भी कम लगती थी। लड़के की बातचीत और व्यवहार संयत और भद्र था। साहब के आगे मुँह बंद कर खड़े रहने की उसकी आदत थी। फिर भी ऐंडरसन के मन में आया करता था कि बीरसा के विद्रोह की खबरें कलकत्ता में ‘अमृतबाज़ार पत्रिका’,. ‘द बेंगाली’ और ‘द हिन्दू पेट्रियट’ अख़बारों में वही भेजता है। मन में ऐसा आता था, पर प्रमाण कुछ नहीं था। लगता था कि उसके मन में मुंडा क़ैदियों के प्रति बड़ी सहानुभूति है। नहीं तो हर कोठरी में जिस तरह पीने के पानी का इन्तज़ाम ठीक-ठीक रहे, उसके लिए वह इतना मुस्तैद क्यों रहता है ? क्यों क़ैदियों को नहाने के लिए वह दो लोटे पानी की जगह दस लोटे पानी का इंतज़ाम करता था ? क्यों बात-बात में ‘जेल कोड बुक’ लाकर कहता है : ‘सर, इसमें लिखा है, उन्हें पेट–भर खाने लायक चावल किचन से देना होगा !’ लगता है, पर प्रमाण कुछ नहीं है। डिप्टी-सुपरिंटेंडेंट, क्रिस्तान लड़का। अच्छी तनख्वाह पाता है। लेकिन राँची शहर में हमेशा मुहल्ले-मुहल्ले घूमता है, सबके साथ मिलता-जुलता है; समाज-सेवा करने जाता है।
‘क्यों, अमूल्य बाबू।’
लड़का अजीब है। सिर्फ़ ‘बाबू’ कहने से खफ़ा हो जाता है। एक दिन उसने कहा था, बहुत मीठे ढंग से हंसकर ही कहा था : ख़फ़ा होना ठीक नहीं है, यह मैं जनता हूँ। लेकिन जो यह सुना था कि ‘बाबू’ शब्द ‘बैबून1 से बना है, इससे सिर्फ़ बाबू सुन कर अजीब सा....! ’

ऐंडरसन ज़्यादा कुछ न कहे सके, क्योंकि अगर ग़ुस्सा हो जाते हैं-अगर वह सचमुच कलकत्ता के उन निकम्मे अख़बारों में छिपाकर ख़बरें भेजना शुरू कर दे तो मुश्किल होगी। देसी अख़बारों का उतना डर नहीं हैं, डर है बैरिस्टर जेकब से। वह आदमी अंगरेज़ है, लेकिन मुंडा लोगों की ओर से बिना पैसे के लड़ता है। इस बार भी उनका वकील बनकर लड़ने आ रहा है। मुंडा लोग उनके ही अधीन जेल की हवालात में हैं। जो उसके विरूद्ध जाये, ऐसी एक ख़बर पाकर भी जेकब उन्हें छोड़ेगा नहीं।

ऐंडरसन बोले, ‘क्यों, अमूल्य बाबू ?’
‘मृत के अंतिम संस्कार के बारे में निर्देश नहीं मिले।’
‘सो ?’
‘क्या करना होगा ?’

‘किस तरह अंतिम संस्कार होगा ? उनके यहाँ का रिवाज तो समधि देने का होता है।’ ‘जेल के हवालात में बिना मुक़दमें के रखे किसी क़ैदी के अचानक हैज़े से मर जाने पर जिस तरह अंतिम संस्कार करना होता है, वैसा ही अंतिम संस्कार करना पड़ेगा। निश्चय ही सरकारी अंत्येष्टि क्रिया की व्यवस्था नहीं होगी। निश्चय ही यह कोई ख़ास मामला नहीं है !’

पराजय, पराजय ! ऐंडरसन क्या वास्तव में इस मामले को ख़ास समझते हैं ? मन की बात छिपा देना चाहते हैं—इसीलिए इतना चीख़ते –चिल्लाते हैं !
अमूल्य बाबू के चेहरे को देखकर कुछ समझ में नहीं आया।
‘ऑलराइट, सर।’
‘और कुछ कहना है ?’
‘क्या उसका भाई कनू मुंडा आग देगा ?’
‘ओ नो ! कभी नहीं। बहुत-से बीरसाइत2 अगर अंतिम संस्कार

1. दक्षिण अफ्रीका का बंदर।
2. बीरसा के अनुयायी।

देखेंगे तो उसी वक़्त जाकर क़िस्से फैलाना शुरू कर देंगे। वे कहते फिरेंगे कि धूमधाम से बीरसा को जलाया गया। उसके बाद तरह-तरह की कहानियाँ गढ़ेंगे। मैं, मैं बीरसा के बारे में और क़िस्से नहीं सुन सकता !’

अमूल्य बाबू का चेहरा पत्थर की तरह हो रहा था। बिलकुल सपाट। ‘तुम्हारे लिए भी उन सब बातों को ठीक मान लेना ठीक नहीं है। तुम पढ़े-लिखे हो। तुम हमारे धर्म के हो। देखो, मैं आज कई बरसों से बीरसा के नाम के क़िस्से सुनते-सुनते....क़िस्से सुनते-सुनते... लेकिन अब इसके पहले भी वह इस जेल में ही था। तुमने भी देखा कि वह एक मामूली आदमी था, एक साधारण मुंडा, हैज़े से मर गया तो क्या....?

‘हम लोग क्या कोठरी को कार्बोलिक से धोएँगे ?’
‘कार्बोलिक क्यों ? क्या पागल हो गये हो ?
‘लेकिन सर, हैज़ा तो छुतहा रोग है न !’
हैज़ा ? हैज़े का तुमको कहाँ से ख़याल आया ?’
‘आपने ही तो कहा कि बीरसा हैज़े से मर गया।’

ऐंडरसन का जबड़ा कुछ देर हिलता रहा। उसके बाद प्रतिकार करते हुए जैसे रुखाई से बोले, ‘हाँ। मैंने ही कहा था-बीरसा हैज़े से मरा। मैं कहता हूँ वह कहाँ से हैज़ा ले आया, यह समझ में नहीं आता। मैं कहता कि कार्बोलिक से कोठरी धोने की ज़रूरत नहीं है। मैं कहता हूँ कि उसका अंतिम संस्कार जेल के मेहतर करेंगे। एक भी बीरसाइत संस्कार न देख सके-नोट करो—एक भी बीरसाइत संस्कार न देख सके। देखने से वे तरह-तरह के क़िस्से फैलायेंगे, और जेकब कहेगा कि अभागे मुंडा का संस्कार देखने को बाध्य करके जेल के अधिकारी लोगों ने मृत देह का अपमान किया ! अब सब साफ़ हो गया ?’’

‘समय ?’
‘जेब में घड़ी नहीं ?’
‘संस्कार का समय ?’
‘और भी अंधेरा हो जाने पर।’
‘मैं जाऊँगा क्या ?’
‘नो। यह मेरा ऑर्डर है।’
‘राइट, सर।’

‘तुम काम में बहुत ज़्यादा फँसे रहते हो। तुम छुट्टी लेकर घर घूम आओ न ! कब मुक़दमा शुरू हो, इसका क्या कुछ ठीक है ?’
‘मेरे जाने की कोई जगह नहीं है, सर। मैं अनाथाश्रम का लड़का हूँ।

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